नर्मदा परिक्रमा
शूलपाणि झाड़ी से जानेवाले पैदल मार्ग
नर्मदा परिक्रमा
माँ नर्मदा की परिक्रमा
परिक्रमा का अर्थ है- किसी के परितः अहर्निश गति.....
ऊँ नर्मदायै नम: प्रातर्नर्मदायै नमो निशि।
नमस्ते नर्मदे देवी त्राहि मां भवसागरात्।।
आदौ ब्रम्हाण्डखण्डे त्रिभुवनविवरे कल्पदा सा कुमारी, मध्यान्हे शुद्धरेवा वहति सुरनदी वेदकण्ठोपकण्ठै;।
श्रीकण्ठे कन्यरूपा ललितशिवजटाशंकरी ब्रम्ह शान्ति: ,
सा देवी वेदगड्ग़ा ऋषिकुलतारिणी नर्मदा मां पुनातु।।
|| त्वदीय पादपंकजं नमामि देवी नर्मदे ।।
नर्मदा ही मेरी केंद्रीय सत्ता है । मेरा यह अभियान कुछ महीनों या वर्ष का आयोजन नहीं; जीवन की अंतिम सांसों तक जिया जाने वाला अहैतुकि समर्पण है.. प्रेम है । बस अकारण............. मैं उसे चाहता हूं ।
नर्मदेचे जल मज अमृत वाटते, पाहता क्षणी सात्विकता नांदते
किनारी वाढती वृक्ष तरुलता, आश्रमी पहा फुलांची विविधता
पायी चालती परिक्रमा वासी, नर्मदे हर, जप मुखासी
शिव शंकरच आहे किंकरात, ब्रह्मानंद दाटतो मनामनात
करा रे तपाचरण नर्मदा किनारी, सुरेश म्हणे, पार ही जीवन वैखरी
सुरेश कुलकर्णी, इंदूर
नर्मदे हर...नर्मदे हर...नर्मदे हर...
नर्मदा परिक्रमा एक धार्मिक यात्रा है, जो पैदल ही पूरी करना होती है। लेकिन जिसने भी नर्मदा की परिक्रमा पूरी कर ली उसने अपनी जिंदगी का सबसे बड़ा काम कर लिया। उसने मरने से पहले वह सब कुछ जान लिया, जो वह यात्रा नहीं करके जिंदगी में कभी नहीं जान पाता। नर्मदा की परिक्रमा का ही ज्यादा महत्व रहा है।
नर्मदा जी वैराग्य की अधिष्ठात्री मूर्तिमान स्वरूप है। गंगा जी ज्ञान की, यमुना जी भक्ति की, ब्रह्मपुत्रा तेज की, गोदावरी ऐश्वर्य की, कृष्णा कामना की और सरस्वती जी विवेक के प्रतिष्ठान के लिये संसार में आई हैं। सारा संसार इनकी निर्मलता और ओजस्विता व मांगलिक भाव के कारण आदर करता है व श्रद्धा से पूजन करता है। मानव जीवन में जल का विशेष महत्व होता है। यही महत्व जीवन को स्वार्थ, परमार्थ से जोडता है। प्रकृति और मानव का गहरा संबंध है। नर्मदा तटवासी माँ नर्मदा के करुणामय व वात्सल्य स्वरूप को बहुत अच्छी तरह से जानते हैं। बडी श्रद्धा से पैदल चलते हुए इनकी परिक्रमा करते हैं।
नर्मदा जी की परिक्रमा 3 वर्ष 3 माह और तेरह दिनों में पूर्ण होती है। अनेक देवगणों ने नर्मदा तत्व का अवगाहन ध्यान किया है। ऐसी एक मान्यता है कि द्रोणपुत्र अभी भी माँ नर्मदा की परिक्रमा कर रहे हैं। इन्हीं नर्मदा के किनारे न जाने कितने दिव्य तीर्थ, ज्योतिर्लिंग, उपलिग आदि स्थापित हैं। जिनकी महत्ता चहुँ ओर फैली है। परिक्रमा वासी लगभ्ग तेरह सौ बारह किलोमीटर के दोनों तटों पर निरंतर पैदल चलते हुए परिक्रमा करते हैं। श्री नर्मदा जी की जहाँ से परिक्रमावासी परिक्रमा का संकल्प लेते हैं वहाँ के योग्य व्यक्ति से अपनी स्पष्ट विश्वसनीयता का प्रमाण पत्र लेते हैं। परिक्रमा प्रारंभ् श्री नर्मदा पूजन व कढाई चढाने के बाद प्रारंभ् होती है।
नर्मदा की इसी ख्याति के कारण यह विश्व की अकेली ऐसी नदी है जिसकी विधिवत परिक्रमा की जाती है । प्रतिदिन नर्मदा का दर्शन करते हुए उसे सदैव अपनी दाहिनी ओर रखते हुए, उसे पार किए बिना दोनों तटों की पदयात्रा को नर्मदा प्रदक्षिणा या परिक्रमा कहा जाता है । यह परिक्रमा अमरकंटक या ओंकारेश्वर से प्रारंभ करके नदी के किनारे-किनारे चलते हुए दोनों तटों की पूरी यात्रा के बाद वहीं पर पूरी की जाती है जहाँ से प्रारंभ की गई थी ।
व्रत और निष्ठापूर्वक की जाने वाली नर्मदा परिक्रमा 3 वर्ष 3 माह और 13 दिन में पूरी करने का विधान है, परन्तु कुछ लोग इसे 108 दिनों में भी पूरी करते हैं । आजकल सडक मार्ग से वाहन द्वारा काफी कम समय में भी परिक्रमा करने का चलन हो गया है । नर्मदा परिक्रमा के बारे में विस्तार से जानकारी प्राप्त करने के लिए स्वामी मायानन्द चैतन्य कृत नर्मदा पंचांग (1915) श्री दयाशंकर दुबे कृत नर्मदा रहस्य (1934), श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी कृत नर्मदा दर्शन (1988) तथा स्वामी ओंकारानन्द गिरि कृत श्रीनर्मदा प्रदक्षिणा पठनीय पुस्तकें हैं जिनमें इस परिक्रमा के तौर-तरीकों और परिक्रमा मार्ग का विवरण विस्तार से मिलता है । इसके अतिरिक्त श्री अमृतलाल वेगड द्वारा पूरी नर्मदा की परिक्रमा के बारे में लिखी गई अद्वितीय पुस्तकें ’’सौंदर्य की नदी‘‘ नर्मदा तथा ’’अमृतस्य नर्मदा‘‘ नर्मदा परिक्रमा पथ के सौंदर्य और संस्कृति दोनों पर अनूठे ढंग से प्रकाश डालती है । श्री वेगड की ये दोनों पुस्तकें हिन्दी साहित्य के प्रेमियों और नर्मदा अनुरागियों के लिए सांस्कृतिक-साहित्यिक धरोहर जैसी हैं । यद्वपि ये सभी पुस्तकें नर्मदा पर निर्मित बांधें से बने जलाशयों के कारण परिक्रमा पथ के कुछ हिस्सों के बारे में आज केवल एतिहासिक महत्व की ही रह गई है, परन्तु फिर भी नर्मदा परिक्रमा के इच्छुक किसी भी व्यक्ति के लिए अवश्य पठनीय है । नर्मदा की पहली वायु परिक्रमा संपन्न करके श्री अनिल माधव दवे द्वारा लिखी गई पुस्तक ’अमरकण्टक से अमरकण्टक तक‘ (2006) भी आज के परिप्रेक्ष्य में अत्यंत प्रासंगिक है ।
पतित पावनी नर्मदा की विलक्षणता यह भी है कि वह दक्षिण भारत के पठार की अन्य समस्त प्रमुख नदियों के विपरीत पूर्व से पश्चिम की ओर बहती है । इसके अतिरिक्त केवल ताप्ती ही पश्चिम की ओर बहती है परन्तु एक वैज्ञानिक धारणा यह भी है कि करोडों वर्ष पहले ताप्ती भी नर्मदा की सहायक नदी ही थी और बाद में भूगर्भीय उथल-पुथल से दोनों के मुहाने पर समुद्र केकिनारों में भू-आकृति में बदलाव के फलस्वरूप ये अलग-अलग होकर समुद्र में मिलने लगीं । कुछ भी रहा हो परन्तु इस विषय पर भू-वैज्ञानिक आमतौर पर सहमत हैं कि नर्मदा और ताप्ती विश्व की प्राचीनतम नदियाँ हैं । नर्मदा घाटी में मौजूद चट्टानों की बनावट और शंख तथा सीपों के जीवाश्मों की बडी संख्या में मिलना इस बात को स्पष्ट करता है कि यहां समुद्री खारे पानी की उपस्थिति थी । यहां मिले वनस्पतियों के जीवाश्मों में खरे पानी के आस-पास उगने वाले पेड-पौधों के सम्मिलित होने से भी यह धारणा पुष्ट होती है कि यह क्षेत्र करोडों वर्ष पूर्व भू-भाग के भीतर अबर सागर के घुसने से बनी खारे पानी की दलदली झील जैसा था । नर्मदा पुराण से भी ज्ञात होता है कि नर्मदा नदी का उद्गम स्थल प्रारंभ में एक अत्यन्त विशाल झील के समान था । यह झील संभवतः समुद्र के खारे पानी से निर्मित झील रही होगी । कुछ विद्वानों का मत है कि धार जिले में बाघ की गुफाओं तक समुद्र लगा हुआ था और संभवतः यहां नर्मदा की खाडी का बंदरगाह रहा होगा ।
नर्मदा का उद्गम म0प्र0 के अनूपपुर जिले (पुराने शहडोल जिले का दक्षिण-पश्चिमी भाग) में स्थित अमरकण्टक के पठार पर लगभग 22*40श् छ अक्षांश तथा 81*46श् म् देशान्तर पर एक कुण्ड में है । यह स्थान सतपुडा तथा विंध्य पर्वतमालाओं को मिलने वाली उत्तर से दक्षिण की ओर फैली मैकल पर्वत श्रेणी में समुद्र तल से 1051 मी0 ऊंचाई पर स्थित है । अपने उद्गम स्थल से उत्तर-पश्चिम दिशा में लगभग 8 कि0मी0 की दूरी पर नर्मदा 25 मी0 ऊंचाई से अचानक नीचे कूद पडती है जिससे ऐश्वर्यशाली कपिलधारा प्रपात का निर्माण होता है । इसके बाद लगभग 75 कि0मी0 तक नर्मदा पश्चिम और उत्तर-पश्चिम दिशा में ही बहती है । अपनी इस यात्रा में आसपास के अनेक छोटे नदी-नालों से पानी बटोरते-सहेजते नर्मदा सशक्त होती चलती है ।
डिंडोरी तक पहुंचते-पहुंचते नर्मदा से तुरर, सिवनी, मचरार तथा चकरार आदि नदियाँ मिल जाती हैं । डिंडोरी के बाद पश्चिमी दिशा में बहने का रूझान बनाए हुए भी नर्मदा सर्पाकार बहती है । अपने उद्गम स्थल से 140 कि0मी0 तक बह चुकने के बाद मानों नर्मदा का मूड बदलता है और वह पश्चिम दिशा का प्रवाह छोडकर दक्षिण की ओर मुड जाती है । इसी दौरान एक प्रमुख सहायक नदी बुढनेर का नर्मदा से संगम हो जाता है । दक्षिण दिशा में चलते-चलते नर्मदा को मानों फिर याद आ जाता है कि वह तो पश्चिम दिशा में जाने के लिए घर से निकली थी अतः वह वापस उत्तर दिशा में मुडकर मण्डला नगर को घेरते हुए एक कुण्डली बनाती है । मण्डला में दक्षिण की ओर से आने वाली बंजर नदी इससे मिल जाती है जिससे चिमटे जैसी आकृति का निर्माण होता है । यहाँ ऐसा लगता है कि नर्मदा बंजर से मिलने के लिए खुद उसकी ओर बढ गई हो और मिलाप के तुरंत बाद वापस अपने पुराने रास्ते पर चल पडी हो । इसके बाद नर्मदा मोटे तौर पर उत्तर की ओर बहती है । जबलपुर के पहले नर्मदा पर बरगी बांध बन जाने के बाद यहां विशाल जलाशय का निर्माण हो गया है ।
जबलपुर में ही भेंडाघाट में नर्मदा का दूसरा प्रसिद्ध प्रपात धुंआधार पडता है जहां नर्मदा अत्यन्त वेग से 15 मी0 नीचे छलांग मारकर मानों नृत्य करने लगती है । धुंआधार प्रपात के आगे थोडी दूरी पर ही विश्व प्रसिद्ध संगमरमर की चट्टानों के गलियारे से होकर बहती हुई यह नदी प्राकृतिक सौंदर्य की अनुपम छटा बिखेरती है । जबलपुर से आगे चलकर नर्मदा नरसिंहपुर, होशंगाबाद, सीहोर व हरदा जिलों से होकर बहती है जहां शेर, शक्कर, तवा, गंजाल, अजनाल जैसी नदियाँ इससे जुडती चली जाती हैं । हरदा जिले में स्थित नेमावर को नर्मदा मध्य बिन्दु या नाभिस्थल माना जाता है । हरदा जिले को छोडने के बाद नर्मदा पूर्वी निमाड जिले में प्रवेश करती है जहां काफी विरोध, जन आंदोलनों और लंबी कानूनी लडाई के बाद पुनासा में नर्मदा पर बांध बनकर बिजली उत्पादन करने लगा है। अब यहाँ से आगे बढने के लिए नर्मदा स्वतंत्र नहीं है बल्कि बांध का संचालन करने वाले व्यवस्थापकों और अभियन्ताओं के निर्णय के अनुसार घटती-बढती रहती है ।
पुनासा से आगे एक के बाद एक बांधों के पाश में बंध जाने के कारण पिछले दशक में नर्मदा के स्वरूप में काफी बदलाव आया है । इस क्षेत्र में कभी नर्मदा को अपना कूदने और छलांग लगाने वाला बचपन मानों फिर से याद आ जाया करता था और धारडी गांव के निकट सहसा लगभग 12 मीटर की ऊंचाई से पुनः छलांग लगा बैठती थी । परन्तु उसकी इस कोशिश में प्रागैतिहासिक काल की चट्टानें आडे आ जाने से छोटे-बडे अनेक प्रपाप निर्मित हो जाया करते थे जिनकी छटा अप्रतिम हुआ करती थी । इस स्थान की रमणीयता का अनुभव इसे देखकर ही किया जा सकता है । वेगडजी ने इस स्थान को छोटे-बडे अनेक प्रपातों के कारण प्रपातों के डिपार्टमेन्टल स्टोर का नाम दिया था जहां कोई अपनी क्षमता और इच्छा के अनुसार मनपसंद प्रपात चुनकर उसे घंटों निहारते बैठा रह सकता था । दुर्लभ प्राकृतिक सुंदरता से परिपूर्ण वह स्थल जून 2007 में ओंकारेश्वर बांध में जल-भराव के साथ ही जलाशय में डूब गया है । इस स्थान के पश्चात देवास और खण्डवा जिले के जंगलों और घाटियों से बहती हुई नर्मदा प्रसिद्ध ओंकारेश्वर मांधाता तक जा पहुंचती है जहां भारत के प्रसिद्ध द्वादश ज्योर्तिलिंगों में से एक ओंकारेश्वर का धाम है । यहां पर मांधाता द्वीप से ठीक पहले ओंकारेश्वर बांध लगभग पूरा हो चुका है जो नर्मदा के प्रवाह को पुनः नियंत्रित करगा ।
माधांता पहुंचने से पहले नर्मदा की दो प्रमुख सहायिकाएंॅ कनाड उत्तरी तट से और कावेरी दक्षिणी तट से आ जुडतीं हैं । ओंकारेश्वर बांध के द्वारा निर्मित जलाशय का बैकवाटर लगभग पुनासा तक पहुंचेगा अतः जल-भराव के बाद नर्मदा का यह हिस्सा लगभग पूरी तरह जलाशय में ही बदल जाएगा। ओंकारेश्वर के बाद पुनः जंगल के क्षेत्र से बहती हुई नर्मदा बडवाह के आसपास वनों से बाहर आ जाती है और बडवानी-झाबुआ में पुनः वनक्षेत्र में प्रवेश करने के पहले यह वनों से बाहर ही बहती है । बडवाह के पास नर्मदा के उत्तरी तट से चोरल नदी आ मिलती है और बडवानी तक पहुंचते-पहुंचते बेदा, डेब तथा गोई नदियों का नर्मदा के दक्षिणी तट से संगम हो जाता है ।
इसके आगे धार जिले में मान तथा उरी नदियाँ व झाबुआ जिले में हथनी नदी नर्मदा के उत्तरी तट से आ मिलती है । यह सारा क्षेत्र उत्तरी तट पर विंध्याचल श्रेणी की पहाडयों और दक्षिणी तट पर सतपुडा श्रेणी की पहाडयों द्वारा निर्मित नौका जैसे भू-भाग के बीच पडता है । झाबुआ जिले से आगे नर्मदा म0प्र0 से बाहर हो जाती है । इस प्रकार अमरकण्टक में प्रकट हुई नर्मदा म0प्र0 को छोडने के पहले 1079 कि0मी0 लंबा सफर तय कर लेती है जो इसकी कुल लंबाई 1312 कि0मी0 का 82.24 प्रतिशत है । नर्मदा बेसिन का कुल क्षेत्रफल 98496 वर्ग कि0मी0 है जो 4 राज्यों में पडता है । इसमें से 85149 वर्ग कि0मी0 (86.19 प्रतिशत) म0प्र0 में आता है तथा शेष 13647 वर्ग कि0मी0 (13.81 प्रतिशत) गुजरात, महाराष्ट्र तथा छत्तीसगढ राज्यों में आता है ।
नर्मदा बेसिन के जलग्रहण क्षेत्र को छोटी-छोटी जलग्रहण इकाइयों में बांटा गया है । म0प्र0 से बाहर आने के बाद नर्मदा 32 कि0मी0 लंबाई में म0प्र0 और महाराष्ट्र राज्य के बीच की सीमा तथा फिर 40 कि0मी0 लंबाई में महाराष्ट्र व गुजरात राज्य के बीच सीमा बनाती है व इसके बाद भृगुकच्छ में सागर मिलन के पहले गुजरात राज्य में 161 कि0मी0 की दूरी तय करती है ।
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*माँ नर्मदा की परिक्रमा:-जीवन का सबसे सुंदर अनुभव।*
इठलाती बलखाती रेवा मैय्या के सलोने रूप को मैय्या का परिक्रमावासी बालक बनकर देखना मनुष्य योनी की धन्यता है।
संपूर्ण ब्रह्मांड किसी न किसी अक्ष को केंद्र बनाकर परिक्रमा कर रहा है। चंद्रमा पृथ्वी की , पृथ्वी सूर्य की , सूर्य तारामंडल की। अनंत परिक्रमा में सभी व्यस्त है। चक्र से मुक्ती पाने के लिये सभी चक्राकार घूम रहे है , जैसे पत्थर मुक्त होने के लिये गोफन के साथ घूमता है। एक समय ऐसा आता है, जब पिंड इस चक्र से मुक्त होकर बडी तेजी से अपने लक्ष की ओर बढ जाता है, अनंत की ओर (According to the law of centrifugal force)। सभी पिंड मुक्ती की कामना से परिक्रमा कर रहे है, इस चक्र से सभी मुक्त होना चाहते है।
मानव भी मुक्त होना चाहता है , जन्म मरण के चक्र से। ईश्वर ने मानव योनी मुक्त होने के लिये ही प्रदान करी है। तो फिर प्रश्न है कि मानव किसकी परिक्रमा करे , कौन है मुक्तीदाता ।
उत्तर मात्र एक :- *परिक्रमा करो नर्मदा की, नर्मदा है मुक्ती दाता।*
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नर्मदे हर ! नर्मदे हर ! नर्मदे हर !
नर्मदा परिक्रमा
नर्मदेच्या काठाकाठाने केलेली गोल प्रदक्षिणा म्हणजेच नर्मदा परिक्रमा. ती धार्मिक अंगाने केली जात असली तरी वाटेत पावलोपावली भेटणारा निसर्ग परिक्रमावासीला अंतर्मुख होण्यापलीकडेही बरंच काही शिकवून जातो. ही परिक्रमा म्हणजे मानसिक, शारीरिक व आध्यात्मिक तप आहे.
हि परिक्रमा पायी पूर्ण करण्याला खूप महत्व आहे. परिक्रमेतील आत्मिक व दैवीय अनुभूती फक्त पायी परीक्रमेतच मिळू शकतात. परंतु आताच्या काळात ज्यांना शरीर अस्वास्थ्यामुळे अथवा वेळे अभावी पायी परिक्रमा करणे शक्य नसते असे लोक हि यात्रा बसने अथवा स्वतःच्या दुचाकी, चारचाकी वाहनाने देखील १५ दिवस, २१ दिवसांत पूर्ण करतात.
नर्मदा - परिक्रमा हा भारतीय संस्कृतीचा अनमोल ठेवा आहे. परंतू ह्याबाबतीत वस्तुनिष्ठ माहिती सहज उपलब्ध नसल्यामुळे परिक्रमेच्या खडतरपणाचाच विनाकारण बाऊ केला जातो. परिक्रमेचं मर्म आणि महात्म्य ह्याच्याकडे म्हणावं तितकं लक्ष न दिल्यामुळे नर्मदा परिक्रमेसाठी निघावं अशी इच्छा मनात बाळगणारे लोक द्विधा मनस्थितीत सापडतात.
या भूतलावर नर्मदा परिक्रमा ही मोठी परिक्रमा आहे. श्री काशी क्षेत्राची पंचकोसी परिक्रमा, तर अयोध्या - मथुरा यांची चौऱ्याऐंशी कोसी परिक्रमा, नैमिषारण्य - जनकपुरी परिक्रमा या सर्वाहून मोठी परिक्रमा म्हणजे नर्मदा नदीची परिक्रमा, जी जवळजवळ ३,५०० कि.मी. आहे. भरतखण्डात नर्मदेपेक्षाही आकार विस्तार नि लांबीत अन्य मोठ्या नद्या असल्या तरी त्यांचं आकारमान आणि विस्ताराच्या मोजमापांपेक्षा नर्मदेचं प्राचीनत्व नि पुण्यप्रदान करण्याचं सर्वश्रेष्ठत्व अशा वैशिष्ट्यांमुळे परिक्रमा केवळ नर्मदेचीच केली जाते ! नर्मदा परिक्रमेचे आद्य प्रवर्तक श्रीमार्कण्डेय मुनी ! त्यांनी सुमारे सात हजार वर्षापूर्वी नर्मदेची परिक्रमा केली. त्या परिक्रमेचं वैशिष्ट्य असं की त्यांनी नर्मदेचीच नव्हे तर तिच्या उभय तटांवर तिला येऊन मिळणाऱ्या ९९९ नद्यांचा धारा-प्रवाह न ओलांडता प्रत्येकीच्या उगमाला वळसा घालून मार्गक्रमण केलं. अशा पूर्णत: शास्त्रोक्त महापरिक्रमेला त्यांना २७ वर्षे लागली !
नर्मदा ही मध्य प्रदेश व गुजरात या दोन राज्यांतून वाहणारी प्रमुख नदी आहे. अमरकंटक शिखरातून तिचा उगम होतो. सातपुडय़ाच्या अमरकंटक या छोटय़ाशा गावातून निघून बराच मोठा प्रवास करून ती अरबी समुद्रास (रेवा सागर) मिळते. तसेच नर्मदा नदीस उत्तर आणि दक्षिण भारताची सीमारेषाही मानली जाते. नर्मदेचे धार्मिक महत्त्वही खूप मोठे आहे. महाभारत आणि रामायणात ती रेवा या नावाने ओळखली जाते. हिच्या महिमेचे वर्णन चारही वेदांत आहे.
नर्मदा परिक्रमा करताना जसे रहस्य, रोमांच आणि धोके आहेत तसेच अनुभवांचे भंडार देखील आहे. या परीक्रमे नंतर प्रत्येक परिक्रमावासी चे आयुष्य बदलल्या शिवाय रहात नाही. नर्मदा नदीवर आता अनेक ठिकाणी धरणे झाली असल्याने साधारण पायी नर्मदा परीक्रमेचे एकूण अंतर ३,५०० किलोमीटर आहे. शास्त्रात सांगितल्या नुसार नर्मदा परिक्रमेचा अवधी 3 वर्ष 3 महिने आणि 13 दिवसाचा आहे. बरेचसे परिक्रमावासी आपआपल्या शक्ती नुसार शक्य तेवढ्या दिवसांत परिक्रमा पूर्ण करतात. परिक्रमा किती दिवसांत पूर्ण केली या पेक्षा परिक्रमा पायी पूर्ण केली याला अनन्यसाधारण महत्व आहे. परिक्रमावासी शास्त्रानुसार चातुर्मास संपल्यानंतर साधारण त्रिपुरी पौर्णिमेच्या आसपास परीक्रमेस निघतात आणि निरंतर पायी चालत परिक्रमा पूर्ण करतात.
नर्मदा परिक्रमा या विषयी माहिती मिळवण्यासाठी मराठी तसेच इतर भाषेत देखील अनेक पुस्तके उपलब्ध आहेत. मराठी मध्ये ‘श्री जगन्नाथ कुंटेजी’ यांचे ‘नर्मदे हर हर ’ हे पुस्तक खुपच प्रसिद्ध आहे. तसेच ‘दा.वि.जोगळेकर’ यांचे ‘नर्मदा परीकम्मा’ हे पुस्तक देखील छान आहे.
1. प्रतिदिन नर्मदा जी में स्नान करें। जलपान भी रेवा जल का ही करें।
2. प्रदक्षिणा में दान ग्रहण न करें। श्रद्धापूर्वक कोई भेजन करावे तो कर लें क्योंकि आतिथ्य सत्कार का अंगीकार करना तीर्थयात्री का धर्म है। त्यागी, विरक्त संत तो भेजन ही नहीं करते भ्क्षिा करते हैं जो अमृत सदृश्य मानी जाती है।
3. व्यर्थ वाद-विवाद, पराई निदा, चुगली न करें। वाणी का संयम बनाए रखें। सदा सत्यवादी रहें।
4. कायिक तप भी सदा अपनाए रहें- देव, द्विज, गुरु, प्राज्ञ पूजनं, शौच, मार्जनाम्। ब्रह्मचर्य, अहिसा च शरीर तप उच्यते।।
5. मनः प्रसादः सौम्य त्वं मौनमात्म विनिग्रह। भव संशुद्धिरित्येतत् मानस तप उच्यते।। (गीता 17वां अध्याय) श्रीमद्वगवतगीता का त्रिविध तप आजीवन मानव मात्र को ग्रहण करना चाहिए। एतदर्थ परिक्रमा वासियों को प्रतिदिन गीता, रामायणादि का पाठ भी करते रहना उचित है।
6. परिक्रमा आरंभ् करने के पूर्व नर्मदा जी में संकल्प करें। माई की कडाही याने हलुआ जैसा प्रसाद बनाकर कन्याओं, साधु-ब्राह्मणों तथा अतिथि अभ्यागतों को यथाशक्ति भेजन करावे।
7. दक्षिण तट की प्रदक्षिणा नर्मदा तट से 5 मील से अधिक दूर और उत्तर तट की प्रदक्षिणा साढे सात मील से अधिक दूर से नहीं करना चाहिए।
8. कहीं भी नर्मदा जी को पार न करें। जहाँ नर्मदा जी में टापू हो गये वहाँ भी न जावें, किन्तु जो सहायक नदियाँ हैं, नर्मजा जी में आकर मिलती हैं, उन्हें भी पार करना आवश्यक हो तो केवल एक बार ही पार करें।
9. चतुर्मास में परिक्रमा न करें। देवशयनी आषाढ शुक्ल एकादशी से कार्तिक शुक्ल एकादशी तक सभी गृहस्थ चतुर्मास मानते हैं। मासत्मासे वैपक्षः की बात को लेकर चार पक्षों का सन्यासी यति प्रायः करते हैं। नर्मदा प्रदक्षिणा वासी विजयादशी तक दशहरा पर्यन्त तीन मास का भी कर लेते हैं। उस समय मैया की कढाई यथाशक्ति करें। कोई-कोई प्रारम्भ् में भी करके प्रसन्न रहते हैं।
10. बहुत सामग्री साथ लेकर न चलें। थोडे हल्के बर्तन तथा थाली कटोरी आदि रखें। सीधा सामान भी एक दो बार पाने योग्य साथ रख लें।
11. बाल न कटवायें। नख भी बारंबार न कटावें। वानप्रस्थी का व्रत लें, ब्रह्मचर्य का पूरा पालन करें। सदाचार अपनायें रहें। श्रृंगार की दृष्टि से तेल आदि कभी न लगावें। साबुन का प्रयोग न करें। शुद्ध मिट्टी का सदा उपयोग करें।
12. परिक्रमा अमरकंटन से प्रारंभ् कर अमरकंटक में ही समाप्त होनी चाहिए। जब परिक्रमा परिपूर्ण हो जाये तब किसी भी एक स्थान पर जाकर भ्गवान शंकर जी का अभ्षिेक कर जल चढावें। पूजाभ्षिेक करें करायें। मुण्डनादि कराकर विधिवत् पुनः स्नानादि, नर्मदा मैया की कढाई उत्साह और सामर्थ्य के अनुसार करें। ब्राह्मण, साधु, अभ्यागतों को, कन्याओं को भी भेजन अवश्य करायें फिर आशीर्वाद ग्रहण करके संकल्प निवृत्त हो जायें और अंत में नर्मदा जी की विनती करें।