मनीष वाजपेयी
शूलपाणि झाड़ी से जानेवाले पैदल मार्ग
मनीष वाजपेयी
श्री मनीष वाजपेयी जी का अनुभव वृतांत
श्री मातु श्री नर्मदे हर
नदी से मेरी मित्रता ठेठ बचपन में हुई। ननिहाल कानपुर है, घर से महज १-२ किमी दूर माँ गंगा अपने पूरे स्नेह सामर्थ्य से बहती है। परमट तट पर ही श्री आनन्देश्वर महादेव का मन्दिर और गुरुकुल है, उस समय वहाँ के प्रमुख मेरी माँ के ताऊजी थे, वे सन्यासी थे। मेरी माँ अपने बचपन में रोज़ नंगे पाँव घर से उनके लिए भोजन लेकर जाती थीं।
उसी घाट पर मैंने भी पहली बार नदी की ममता को महसूस किया था। आसपास अन्य बच्चों को निर्भीकता से उछल-कूद मचाते, महिलाओं को कपड़े कूटते, आपस में बतियाते हुए देखा था। शाम ढ़ले किनारे पर कुछ लोगों को अकेले तो किसी को दोस्त-यार के साथ बैठे पाया था। नदी कैसे उनके चेहरों पर निश्चिंतता लाती थी, यह अब महसूस होता है। नदी के साथ कभी किसी को अकेले नहीं देखा, नदी हर किसी से उसके तल पर मिलती और इस कदर घुल-मिल जाती कि उसे अलग कर पाना मुश्किल होता है। मूलतः मेरा गाँव भी गंगागंज, जिला कन्नौज है, जहाँ विशाल गंगा जी प्रवाहित हैं। घर से थोड़ी ही दूर ब-मुश्किल 300-४०० मीटर दूर ही गंगा-काली संगम है। मैं गंगा से जुड़े सैकड़ों किस्सों के बीच ही बड़ा हुआ हूँ।
MBA करते समय जबलपुर रहा। नर्मदा की गोद में बसा है जबलपुर लेकिन आश्चयर्जनक रूप से कभी औपचारिक रूप से नर्मदा दर्शन के लिए नहीं गया, उस समय स्नान-पूजन करने तो कभी गया ही नहीं। शायद नर्मदा को मेरी ये बेरुखी या लापरवाही रास न आयी हो और अचानक एक दिन एक वेदपाठी अभ्यासी ब्राह्मण मेरे मित्र बने और बोले अगर तुम भी मेरे साथ चलो तो मैं पैदल नर्मदा परिक्रमा पर जाना चाहता हूँ, मैंने थोड़ा रूककर कहा 'चलिए'।
कुछ दिन बाद वे फिर मेरे पास किसी चर्चा हेतु आये, मैंने पूछा क्या हुआ, बोले चलते हैं लेकिन आखिर उन्होंने कह दिया भैया बहुत कठिन, दुर्गम और लम्बी परिक्रमा है, रहने दो। मुझे कुछ समझ नहीं आया। मैंने कहा निश्चित ही कठिन है लेकिन इतना तो पक्का है कि 'है', चलिए चलते हैं लेकिन वो राज़ी न हुए। मैंने कहा लेकिन मैं तो कह चुका हूँ कि मैं परिक्रमा करूँगा उसका क्या? बोले अकेले जाओगे क्या? मैंने कहा 'हाँ'।
आज २ दिसम्बर २००९ को देव-उठनी एकादशी से मेरी परिक्रमा आरम्भ हुयी। घर से अकेला ही चला और परिक्रमा भी पैदल अकेले ही पूर्ण हुयी। लगातार ८ महीने तक माताजी का संग आपको क्या दे सकता है, ये आप तभी जान पायेंगे जब आप ये संग करेंगे। एक मात्र उनका आसरा, भोजन वो देंगी, जीवन वो बचायेंगी, प्यास के लिए तो उनका अमृत है ही। मुझ जैसे ठीठ को जिसे खिचड़ी बनाना भी नहीं आती, जिसने परिक्रमा में भी कभी कुछ पकाने का प्रयत्न नहीं किया, माँ का विशेष प्रेम मिलना ही था। मार्ग में लोग मिलते-बिछड़ते रहे। वे ब्राह्मण परिक्रमा पूर्णता के उपरान्त जब मैं घर आया तो मेरे घर आये उसके बाद से फिर हम कभी नहीं मिले। वे ग्वालियर में ही रहकर अपना ज्योतिष इत्यादि का काम करते हैं। उनका मुझ पर उपकार की उनके आने से मेरा मईया तक जाना हुआ।
जब आप नर्मदा जी के साथ होते हैं तो बाहर बहते-बहते वो धीरे-धीरे आपके अन्दर भी बहने लगती हैं। आप उनका बहना, उनकी कल-कल, उनकी शीतलता, उनकी ऊष्मा भी अपने अन्दर, भीतर स्पष्ट रूप से महसूस कर सकते हैं, मैंने की। बहुत कुछ महसूस किया जिसका वर्णन करने के योग्य मैं नहीं हूँ।
इस परिक्रमा के तमाम अनुभवों-अनुभूतियों को अपने अंतस में लिए मैं अब भी यही महसूस करता हूँ कि परिक्रमा अब भी, आज भी चल रही है। अभ्यास भीतर शायद काम आ रहा है। स्थिर पाँवों के होते हुए भी शायद मैं अनन्त की परिक्रमा में सहज और सजगता के साथ सम्मिलित हूँ। नित्य अखण्ड मण्डलाकार के साथ जो अखण्ड मेरे भीतर उतरता ही रहता है उसका वर्णन आह! कितना कठिन और दुष्कर है। परिक्रमा आरम्भ करने से पहले प्रख्यात साहित्यकार और नर्मदा प्रेमी श्री अमृतलाल बेगड़ जी ने मुझे एक डायरी दी थी, लिखने के लिए, लेकिन मैं उसका उपयोग कर ही नहीं पाया। कुछ लिखने का मन ही नहीं हुआ परिक्रमा में।
नर्मदा शिव-पुत्री हैं और मेरा शिव से बचपन का प्रेम शायद मेरे शव होने से पहले पूरा ही प्रकट हो, ऐसी मेरी प्रार्थना !
हे नरबदा -
तुम्हारे कल-कल बहते पानी में
जो मेरा स्वेद भी मिल गया है।
तो हे कर्म-सलिला मानो न
कि मेरा श्रम तुममें अर्पित हुआ।
हे नरबदा -
तुम्हारे कल-कल बहते पानी में
जो मेरी आँखों की नमी का
खारापन भी मिल गया है
तो हे कर्म-सलिला मानो न
कि मेरा भाव भी तुममें अर्पित हुआ।
हे नरबदा -
तुम्हारे कल-कल बहते पानी में
जो मेरे तलवों से रिसता रक्त
भी मिल गया है
तो हे कर्म-सलिला मानो न
कि मेरा भय भी तुममें अर्पित हुआ।
हे नरबदा -
तुम्हारे कल-कल बहते पानी में
उसकी निपट कंवारी धार में
खड़े मैंने जो मृत्यु का आराधन किया
तो हे कर्म-सलिला मानो न कि मेरा
अहंकार भी तुममें विसर्जित हुआ।
तो मेरे पास बचा क्या
एक तुम्हारी याद - एक तुम्हारा नाम
सुना है इसके बाद सब वापस तो आता है
लेकिन रूप बदलकर, तुम सा निर्झर
और शुद्ध होकर।
माँ ने तो मुझे सब कुछ दिया
जीवन, विद्या, प्रेम
और मैंने.............??
(यह पोस्ट श्री मनीष वाजपेयी जी इनकी फेसबुक से है )