नर्मदा परिक्रमा (हिंदी) - सुरुचि नाईक
शूलपाणि झाड़ी से जानेवाले पैदल मार्ग
नर्मदा परिक्रमा (हिंदी) - सुरुचि नाईक
नर्मदा परिक्रमा – एक अनन्यसाधारण अनुभूति (हिंदी) - सुरुचि नाईक
नर्मदा परिक्रमा – एक अनन्यसाधारण अनुभूति – भाग १
नर्मदा परिक्रमा के अनुभव के बारे में जो पहली बात मैं बताना चाहती हूं, वह यह है कि यह नर्मदा परिक्रमा मैंने नहीं की है। यह नर्मदा परिक्रमा मेरे गुरु और मेरे नर्मदा मा ने मुझसे करवाई है. जैसे बच्चा चलना सिखता है और उसके हर कदम को माता द्वारा बारीकी से देखा जाता है, वैसे ही एक तरफ गुरुमूर्ति नाना महाराज तराणेकर और दूसरी तरफ मेरी नर्मदा मैया थे जीनके सुरक्षा कवच में मेरा चलना पूरा हो सका है। सुरक्षा एक आवश्यकता है, और परिक्रमा के कई हिस्से वास्तव में डरावने है। मैं भाग्यशाली हूं क्योंकि मुझे यह सुरक्षा कवच मिला है| मैं नर्मदा मैया से प्रार्थना करूंगी की वह मेरी वाणी को अहंकार का स्पर्श न होने दे। इसी प्रार्थना के साथ, मैं श्रोताओ से यह भी निवेदन करूंगी की हम सब उसके बच्चे हैं, इसलिए आपके दिल में जो भी भावनाएँ हैं, वह मा के प्रती हो, ना ही अनुभव के लिये हो.., मैं आपके और उसके बीच में एक दुआ नहीं हूँ, बल्कि आप जैसी ही उनकी एक बेटी हूँ. मैं भाग्यशाली हूं की मुझे इस यात्रा को पूरा करने का मौका मिला है और इसे पूरा करने में मेरे गुरु का साथ मिला है।
अक्सर हमें कुछ करने की इच्छा होती है और हम अपनी प्रेरणा से प्रेरित होते हैं। मेरे अनुभव के बयान ने आपमें से किसी के लिए नर्मदा माई की परिक्रमा करने की इच्छा हुई, तो मुझे लगता है की मेरा अनुभव कथन सफल होगा। यह एक तपस्या है जो पूरे जीवन को बदलती है, और यह समझना महत्वपूर्ण है कि यह अपनी शक्ति और भाग्य के अनुसार करायी जाती है।
नर्मदा परिक्रमा क्यों करते हैं? आपको नर्मदा की परिक्रमा करने का विचार कैसे आया? आप इतने महीने से घर से बाहर रही हैं, परिवार कैसे सहमत हुआ? इस तरह के कई सवाल इस समय आपके मन में होंगे। मैं उन सभी का जवाब देने की कोशिश करूंगी। शायद आपके कुछ सवाल ऐसे भी हो सकते हैं, जिनको हल करने की क्षमता मुझमे नहीं है। हो सकता है की वह आपकी यात्रा का बीज हो? चलिये यह सवाल मा मैया पर छोड देते है.
तो नर्मदा परिक्रमा के लिए क्यों जाएं? इसकी एक किंवदंती है। एक बार गंगा मैया और नर्मदा मैया तप मे बैठी थीं। जब गंगमैया की तपस्या पूरी हो गई, तो उन्होंने शंकर भगवान से “मुझे अपने मे विलीन करे” ऐसी मांग की और इसलिए गंगमाई को शंकरजी के जटाओमें शामिल किया गया। जब नर्मदा मा की तपस्या पूरी हुई, तो उन्होंने मांग की, “आप अपनी पंचायतों के साथ मुझमे समा जाईये।” और सभी पंचायतों के साथ शंकर भगवान नर्मदा मा में समाये गए। नर्मदा मा में सभी देवताओं का वास है, इसलिए नर्मदा मा की परिक्रमा सभी देवताओं की परिक्रमा है। नर्मदा मैया के तट पर ब्रह्मा देव तथा राजा बलि से, कई देवताओं, ऋषि मुनि ने तपस्या की, और इसलिए नर्मदा तट पर हर पत्थर को शिव के रूप में माना जाता है। यहाँ एक वाक्यांश प्रचलित है जो “हर कंकर शंकर” ऐसा है। और इसलिए परिक्रमा नर्मदा मैया की ही कियी जाती है। किसी अन्य नदी को परिक्रमा करने का सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ। इसी प्रकार, नर्मदा नदी की महानता का वर्णन करते हुए, यह कहा जाता है कि सरस्वती में तीन बार स्नान करने का पुण्य मिलता है, यमुना में सात बार स्नान करने से पुण्य प्राप्त होता है; और नर्मदा के केवल दर्शन से ही पुण्य की प्राप्ती होती है. नर्मदा के तट पर कई ताकतें आज भी अदृश्य हैं, और उस जगह पर पवित्र कंपन महसूस किए जाते हैं।
जब मुझसे पूछा गया कि आपने नर्मदा परिक्रमा करने के बारे में क्यों सोचा, तो मुझे वास्तव में लगा कि यह विचार दिमाग में आया लेकीन उस क्षण तो इस विचार को लेकर कुछ भी नहीं किया गया था। यह विचार सत्य मी उतरने के लिए कई साल लग गए। संक्षेप में, मैंने सोचा और परिक्रमा पुरी हो गयी इतना सरल यह गणित नहीं था, जिसके लिए मुझे गुरु और मैया दोनों की साथ और आशीर्वाद की आवश्यकता थी।
मैंने पहली बार नर्मदा परिक्रमा के बारे मे सोचा था, तब मेरी उम्र १३ वर्ष की थी, लेकिन आज जब मैने परिक्रमा कियी है तब तक मेरी उम्र चालीस पर पहुँच चुकी थी। बेशक, उस उम्र में परिक्रमा करना संभव नहीं था, और मेरे भाग्य मे भी नहीं था.
मेरे बचपन मे मेरी दादी मुझे मेरे गुरु प पु नाना महाराज तराणेकर की पोथी पढ़ने के लिए कहती थी। मैं रोजाना एक पन्ना पढती। पोथी में नाना महाराज के अनुभव की कहानी बतायी है जिसमे उन्हो ने नर्मदा मैया की जलेरी परिक्रमा कियी थी । उन अनुभवो को पढ़ने से ऐसा लगता था की क्या वास्तव में ऐसा होता है? मेरे मन में उत्कंठा बढती ही चली गयी| और यही उत्कंठा मेरी प्रेरणा बनी|
एक अनुभव जो मुझे यहां याद आ रहा है वह मै आपको इसलिये बता रही हु ही क्योंकि यह मेरे एक अनुभव से मिलता-जुलता है|
तो जिस समय नाना महाराज परिक्रमा मे थे, वैसा कठीण मार्ग आज का नहीं है। वर्तमान में अब जैसि सुविधाये है ऐसी कोई सुविधा, सेवा, आश्रम, भोजन दान या भोजन क्षेत्र उन दिनो परिक्रमा मार्ग में नहीं हुआ करते थे। न कोई मोबाइल सिस्टम था और न ही कोई संचार उपकरण। न सड़कें, न रास्ते, यह बहुत कठिन और घना जंगल का मार्ग था … जब नाना महाराज जंगल से अकेले चल रहे थे, तब की बात है| शाम होने को थी, नाना महाराज भूख से व्याकुल थे और एक पेड़ के नीचे विश्राम कर रहे थे। मुख से वे नामस्मरण कर रहे थे| नाना थक गये थे, बैठे बैठे उनकी आख लग गयी… इतने मे उन्हे एक आवाज सुनाई दीयी, “बेटा, क्या तुम्हें दूध पाओगे?” एक गांव की महिला सोने के बड़े घड़े मी दुध लेकर सामने खड़ी थी।
“दूध” सुनकर नाना महाराज की भूख और तेज हो गयी और उन्होने उस घडे को मुह लगाकर दुध पिना शुरू किया.. भूक इतनी लगी थी घडा खाली होने तक वे दुध पीते रहे और महिला के तरफ उनका ध्यान तक नही गया| दुध खत्म होने के बाद अब उस महिला को उसका सोने का घडा लौटाना था लेकीन नाना को वहा और आसपास कोई महिला दिखी ही नही! अब सोने का घडा जंगल में छोड जानेवाली महिला थी कौन? कौन कर सकती है ऐसे? नाना को एहसास हुआ कि यह नर्मदा माई ही थी और कोई तीसरा व्यक्ति नहीं था। ऐसे कयी अनुभव नाना महाराज की पोथी में लिखे गये है| मेरे मन में नर्मदा परिक्रमा करने की प्रेरणा भक्ति से नहीं बल्कि जिज्ञासा से उत्पन्न हुई थी।
मेरी नर्मदा परिक्रमा के पीछे एक और कारण हो सकता है| 7 जुलाई को, मैंने अपना पीएचडी थेसिस सबमिट किया। वह कार्य मेरे लिए वास्तव में भारी पड़ रहा था। उस समय, मैं एक कठीण अवस्था से गुज़र रही थी, लेकिन नर्मदा मैया के अनुभव के बारे में सुनकर मुझे प्रसन्नता हो जाती थी और मेरा डिप्रेशन कम हने लगता था … एक समय था जब मुझे लगा कि वह मुझे बुला रही है। कई सालों तक, मुझे अपने जीवन को लेकर , अपनी आध्यात्मिकता के बारे में कई सवाल परेशान कर रहे थे। मैं संतुष्टि चाहती थी, लेकिन वास्तव में नहीं जानती था की इन सवालो के जवाब के लिये क्या करना होगा। अज्ञात की खोज में मै मानो झुंज रही थी.. मुझे यकीन था कि मुझे नर्मदा परिक्रमा में ही मेरे सवालों के जवाब मिलेंगे। इसलिए मैं कुछ ज्ञात और कुछ अज्ञात कारणों के साथ यात्रा पर निकल पडी।
शुरू में, जब मुझे कुछ महीनों के लिए घर से बाहर रहना पडेगा यह बात मेरे परिवार वालो के सामने आयी तब मेरे घर से विरोध होने लगा था, जैसा कि अपेक्षित था, लेकिन मेरी प्रबल इच्छा और मेरे जुनून को समझने के बाद, मेरे परिवार ने मुझे जाने देने का फैसला किया। मैं उनके फैसले बिना नहीं जा सकती थी। 7 नवंबर को, मैंने ओंकारेश्वर से परिक्रमा शुरू करने का फैसला किया। नागपुर से, मैं ठाणे से सौ. सुरेखा और मुंबई के सौ चित्रा के साथ मैने यात्रा करने का फैसला किया … लेकिन हम निर्णय लेने वाले कोई नहीं हैं। वह तो मैयाजी की मर्जी होती है….आगे क्या हुआ, क्या सोचे हुये समय पर, और सोचे हुये व्यक्ती के साथ परिक्रमा हो पायी? या कूच और हिने वाला था ? यह अगली खंड मे बताती हू.
नर्मदा परिक्रमा – एक असाधारण अनुभुति – भाग २
परिक्रमा करने से पहले ही जब आशीर्वचनो की अनुभूती होती है तब…..
परिक्रमा करने से पहले अनिलदास महाराज जी से संकल्प पूजा करवाई थी. जब संकल्प लिया तब मन में विचारों की बहुत उलथ पुलथ हो रही थी. एसी स्थिती मे मै नर्मदा मा से मन ही मन कब बाते करने लगी पताही नही चला. सामने कल कल आवाज करती नर्मदा नदी, उसका वह रूप वाकई में डरावना था.
अभी मेरे प्रति मा नर्मदा के स्नेह की अनुभूती मुझे नही मिली थी लेकिन मा कभी अपने बच्चे को समझ ने में पीछे नही रहती. मेरे मन की उलथ पुलथ वे समझ गई. मानो उन्होने मुझसे कहा कि, बेटा यथाशक्ती संकल्प करो, हा उन्होने ही कहा ऐसाही लगा मुझे. जब कोई भी वीचार अपना नही होता है तब समझ में आ जाता है कि यह विचार कही और से मन मे उतर कर आया है. ऐसा ही हुआ, यथाशक्ती संकल्प करने का विचार मेरा खुद का नही था. जैसे कोई धीरे से कान मे आकर बोले कुछ ऐसा ही लगा मुझे. मा कह रही थी, मै तुम्हारे साथ हू. जहा तुम्हे जरुरत होगी वहा मुझसे निसंकोच बाते करो, मै तुम्हे मार्गदर्शन करूंगी. परिक्रमा शुरू होने से पहले ही मुझे यह अनुभव मिला था.
देखा जाये तो इसके पहले भी मुझे एक अनुभव आया था, मेरे सद्गुरु का! मैने परिक्रमा उठाने का निर्णय किया और मै इंदोर आ गई. इंदौर मे मेरी बुआ जी रहती है मै उन के यहा आई थी. हमारे घर में हम सभी नाना महाराज जी के अनुग्रहित है. लेकिन अभी तक मेरा अनुग्रह नही हुआ था. कई साल पहले मै अनुग्रह लेने वाली थी लेकिन मेरा अनुग्रह लेना हुआ ही नही. जीन शिष्य को नानामहाराज जी अनुग्रह देने वाले थे उनके सभी के नाम के साथ मेरा नाम भी लिखा गया था. अनुग्रह लेने का दिन भी पक्का था लेकिन कुछ भी तय करने वाले हम कोई भी नही होते. नाना महाराज जी की तब्येत अचानक खराब हो गयी और उन्होने देह छोड दिया. मुझे बहुत ही बुरा लगा था क्योंकि मेरा अनुग्रह लेना नही हो पाया था. तब मै मात्र 15 16 साल की रही होगी. मैने सोचा अब मै किसी से अनुग्रह नही लुंगी मेरे गुरु केवल नानामहाराज जी है और मुझे कभी भी किसी से अनुग्रह लेने का मन हुआ ही नही. अपने मन मे मैने हमेशा नानामहाराज जी को ही मेरा गुरु समझा है….तो बात यह हुई की अभी, मतलब मेरे नर्मदापरिक्रमा शुरू होने के दो दिन पहले मुझे बुआजी ने पूछा, “बेटा तुम्हारा अनुग्रह तो हो गया है ना”,…. और उसी पल से मुझे अनुग्रह लेनेका विचार मन मे आने लगा. दुसरे ही दिन बाबासाहब तराणेकर जी को फोन किया. मै पहले उनसे मिल चुकी थी. मै परिक्रमा के लिए जा रही हू यह बताकर मैने नाना महाराज जी का और बाबा महाराज जी का आशीर्वाद लिया था. लेकिन अब मुझे गुरुमंत्र चाहिये था. बाबा महाराज जी को बाहर गाव जाना था लेकिन बच्ची परिक्रमा मे जा रही है इसलिये उन्होने समय निकाल कर उसी दीन मुझे गुरुमंत्र दिया. इस प्रकार मेरे परिक्रमा शुरू करने के पहले मुझे मेरे गुरू ने अपने छत्रछाया मे लिया.
गुरुबल साथ हो और मैया भी साथ हो तो परिक्रमा कैसे पुरी नही होगी? परिक्रमा के शुरु होतेही परिक्रमावासी के पैरो को छांले आये हुये हे मेने देखा था. कहां जाता है कि इस कालावधि में जो भी तकलीफ होती है वह अपने अपने भोग होते हैं. हमने कभी किसी को कोई तकलीफ दी होती है तो अब वह हमें वापस मिलती है क्योंकि हमने दे तो दिया है लेना अभी बाकी होता है. यह लेना झेलना ही पड़ता है, यह तकलीफ सहन करनी पड़ती है. और ऐसे ही मैंने कई परिक्रमा वासियों को अलग-अलग तकलीफों में से गुजरते हुए देखा है. मुझे भी परिक्रमा के दौरान दो तीन बार बुखार आया था. कभी-कभी छोटी मोटी तकलीफ भी हुई थी लेकिन उस समय मुझे मैया जी के कई अनुभव भी प्राप्त हुए. कोई जख्म होना, पैर दुखना, पैरों को छाले आना, ऐसी कोई भी तकलीफ मुझे पूरी परिक्रमा में नहीं हुई. तकलीफ नही हुई यह कहना शायद गलत होगा क्यूकी मेरी सारी तकलीफ को मेरे गुरु और मेरी नर्मदामैया ने उपरही ऊपर झेल लिया और मुझे तक आने ही नही दिया. यहा बात पूरे विश्वास के साथ बता सकती हू क्यूकी मै एक अत्यंत सर्वसाधारण व्यक्ती हू. मेरे जीवन काल मे या मेरे गतजन्म मैने की सारी गलतिया, अनेक पाप, किये हुए है और फिर भी मुझे कोई तकलीफ नही हो रही है, क्यू कि वह मेरे गुरु और मेरी मैया मुझे तकलीफ नही होने देते इसलिये.
शायद पिछले जन्मों में पाप कर्मों के साथ-साथ मेरे हाथों कोई निस्वार्थ निष्पाप मन से सत्कर्म जरूर हुआ होगा इसी की वजह से मुझे नाना महाराज जैसे गुरु प्राप्त हुए और बिना तकलीफ परिक्रमा पूरी होने का भाग्य मिला. इसीलिए शुरुआत में ही मैंने जो शब्द कहे वही सच है, वह यह है कि परिक्रमा मैंने की ही नहीं है, यह तो मुझ से करवाई गई है.
एक अनुभव तो मैं आपको बताना भूल ही गई हूं. यह शायद इसलिए क्योंकि यह अनुभव मुझे परिक्रमा शुरू करने के 1 महीने पहले ही मिला. सुनकर अचरज हुआ ना? बताती हूं. नागपुर का कोराडी देवस्थान मेरे घर से 25 किलोमीटर दूर है. पैदल चलने की आदत हो इसलिए मैंने यहां पैदल जाने का तय किया. परिक्रमा के लिए जो सफेद कपड़े सिलवाए थे वही पहन लिए. चलते समय यह कपड़े कंफर्टेबल है या नहीं यह भी जान लेना जरूरी था. दशहरे का मुहूर्त देखा और पैदल चलना शुरू किया. हाथ में दंड और कमंडल भी ले लिया था. पीठ पर 12 13 किलो वजन का बैग भी थी. लगभग 15 किलोमीटर अंतर काटकर हुआ था. धूप काफी तेज थी. सुबह के साडे आठ नौ हुए होगे. एक होटल के सामने थोड़ी सी छांव थी वहीं पांच मिनट विश्राम करने का सोच मैं वहां बैठ गई. इतने में ही होटल के अंदर से एक तरुण दौड़कर बाहर आया. “नर्मदे हर मैया जी, आप परिक्रमा के लिए निकले हैं ना, कब उठा रहे हो परिक्रमा, कार्तिक द्वादशी को संकल्प लीजिए गा….” मुझे बहुत ही आश्चर्य हुआ… यहां नागपुर में मुझे मैया जी कहकर कौन बुला रहा है, मुझे परिक्रमा करनी है यह बात इस तरुण को कैसे मालूम हुई, “आइए माताजी चाय नाश्ता कीजिए ठंडा पानी पीजिए” ऐसा कहते हुए उसने मेरे हाथ से कमंडलु छीन ही लिया और उसमें ताजा ठंडा पानी भर दिया.
मेरा उनसे अच्छा परिचय हुआ. उनका नाम था अविनाश सोलंकी दुबई में रहने वाले थे और नर्मदा खंड में तब तक सात जगह उन्होंने अन्य छत्र चालू किया था. उनका ससुराल नागपुर में था इसलिए वह यहां आए थे. वह मैया जी के भक्त है लेकिन नौकरी से छुट्टी नहीं मिल पाती इसलिए उनकी परिक्रमा नहीं हो पाती इसका उन्हें बहुत दुख है. अविनाश जी ने मेरा नंबर लिया और दूसरे ही दिन वह मेरे घर आए. उन्होंने मुझे परिक्रमा के बारे में पूरी जानकारी दी और एक पुस्तक भी भेंट किया. संपूर्ण परिक्रमा में जहां-जहां नेटवर्क था वहां वहां उनका मुझे दुबई से फोन आया करता था. फोन पर यह आदमी मुझे अगले गांव की जानकारी देता और एक ही बात पूछता, “मैया जी अब बताइए आपको कौन से अनुभव आए?” कई बार नेटवर्क के ना रहते हुए हमारा फोन नहीं हो पाता था लेकिन अविनाश जी के रूप से नर्मदा माई मेरे साथ हमेशा रही हैं. अब बताइए कौन है यह अविनाश जी? मुझे परिक्रमा के एक महीना पहले कैसे मिले? और मेरी परिक्रमा पूरी होने तक मेरे संपर्क में भी रहे? अब बताइए मेरी परिक्रमा होना यह क्या सिर्फ मेरा अकेली का निर्णय था? या फिर इस बच्ची के हाथों परिक्रमा करवानी है यह निर्णय मेरे गुरु और मेरे मैया का था? या फिर यह मेरे मां बाप की पिछले जन्मों की पुण्याई होगी… कुछ भी हो सकता है है ना?
संकल्प लिया गया. अब परिक्रमा को शुरुआत करनी है. हम तीनों साथ रहेगी ऐसा ही हमने सोचा था लेकिन वह हो ही नहीं पाया. हमने मोर्तक्का से ओम्कारेश्वर तक पैदल चलने की आदत हो इसलिए पैदल चलना पसंद किया और शायद इसीलिए पता चला कि संकल्प में बहुत शक्ति होती है. कैसे वह बताती हूं. जब मोर्तक्का से हम ओमकारेश्वर तक पैदल चले तब हमें 3 से 4 घंटे लगे. यह अंतर मात्र 11 किलोमीटर का है. लेकिन वह हमारा पहला ही दिन था. बात तो यह है कि यही अंतर जब हमने संकल्प लेने के बाद परिक्रमा के पहले दिन शुरू किया तब यही अंतर मात्र ढाई घंटे में पूरा हो गया, यह ताकत संकल्प की ही हो सकती है.
एक बात का कबूलीनामा देना चाहूंगी संकल्प तो लिया था लेकिन मैया जी के ऊपर पूरी श्रद्धा होना जरूरी था. श्रद्धा तो थी लेकिन कुछ अलग सा डर मेरे मन में था. ओमकारेश्वर से मोर्तक्का मैया जी के किनारे से मत जाओ ऐसा सुझाव मुझे कई लोगों ने दिया. “आपका वजन ज्यादा है, आप किनारे-किनारे नहीं चल पाओगे. वह रास्ता बहुत ही कठिन है.” ऐसा मुझे बताया गया था यहां मेरे मन में दो कारण बताएं. एक यह मार्ग कठिन हुआ और मैं नहीं कर पाई तो? और दूसरा परिक्रमा के दौरान में अकेली हो गई और चित्रा ताई और सुरेखा ताई का साथ छूट गया तो? यह दो कारण सामने रखकर मैंने किनारे मार्ग से जाना छोड़ हाईवे से जाना पसंद किया. शायद यही मेरी परीक्षा थी और उसमें मैं पास नहीं हो पाई थी. यथाशक्ति संकल्प करना ही शायद मेरी गलती थी क्योंकि अपने मन के डर को छुपाने वाला यह संकल्प है ऐसा मुझे लगा. संकल्प कैसा होना चाहिए यह बताते हुए चितले माताजी ने एक कथा बताई थी वह आपको बताना चाहूंगी, और सच्चे दिल से कहना चाहूंगी अगर कहीं कभी आपको संकल्प लेना हो तो यथाशक्ति मत लीजिएगा. कुछ नियम जो आपने अपने लिए बनाए हैं उन पर पक्का रहकर ही संकल्प लेना ठीक रहेगा.
अब मैं आपको वह कथा बताती हूं. कथा ऐसी है एक व्यापारी था. उसने तय किया अब इसके बाद किसी को पैसे देने नहीं और किसी से पैसे लेने भी नहीं. जो कोई लेनदेन बाकी था वह चुकता कर अब आगे यह निर्णय पक्का करना. उस व्यापारी ने अपना सारा लेन-देन चुकता किया और संकल्प लिया. “अब मैं ना किसी से पैसे लूंगा और ना ही किसी को पैसे दूंगा” कुछ दिनों बाद एक सन्यासी उस व्यापारी के घर आया और कहने लगा “मुझे आपसे एक रुपए लेना बाकी है”. व्यापारी ने तो संकल्प लिया था. उसने कहा जो कुछ हो जाए अब मैं तुम्हें पैसे नहीं दूंगा. सन्यासी चला गया. कुछ दिन बाद फिर से लौट आया तब व्यापारी ने उसे दूर से ही आते हुए देखा और अपने बच्चे को बोला “जा, बता दे की पिताजी सो रहे. हैं बेटे ने भी सन्यासी को वैसे ही बताया. सन्यासी ने कहा “कोई बात नहीं मैं इंतजार करता हूं लेकिन आज तो मैं मेरे पैसे लेकर ही जाऊंगा”. यह सुनकर व्यापारी ने अपने बेटे से कहा “जा उस सन्यासी को बता पिताजी बीमार है इसलिए तुझे तेरा ₹1 नहीं मिल सकता”. बेटे ने भी वैसा ही किया. लेकिन बेटे ने पिताजी को समझाया “₹1 की तो बात है दे दीजिए ना पिता जी”… व्यापारी ने कहा “नहीं मैं अपने निर्णय पर पक्का हूं” उसके बाद सन्यासी ने कहा “मैं इंतजार करूंगा”. कई दिन हो गए व्यापारी के घर के सामने सन्यासी भी अपनी झोपड़ी लगाए बैठा रहा. 1 दिन व्यापारी ने अपने बेटे से “कहा जा उस सन्यासी को बोल पिताजी चल बसे” बेटे ने भी वैसा ही किया. सन्यासी ने कहा “अरे मुझे तो मिलने से रहा लेकिन अब इस व्यापारी का अंतिम संस्कार किए बिना मैं यहां से नहीं जाऊंगा” अब व्यापारी का बेटा डर गया. उसने यह बात जाकर अपने पिताजी को बताइए. व्यापारी ने बेटे को अंतिम संस्कार की तैयारी करने के लिए कहा. बिचारा बेटा ना चाहते हुए भी पिता की आज्ञा समझकर अंतिम संस्कार की तैयारी करने लगा. लोग जमा हो गए व्यापारी को चिता के ऊपर रख दिया गया. अब बेचारा बेटा डर गया. अभी पिताजी को जीते जी अग्नि देना है, उसके हाथ थरथराने लगे. अपने पिता के छाती पर सर रखकर वह अपने पिता को कहने लगा “पिताजी एक रुपए के लिए आप मरना भी पसंद करोगे? यह क्या है यह कैसी मूर्खता है?” लेकिन व्यापारी सुनने का नाम नहीं ले रहा था. व्यापारी कहने लगा “अब मुझे अग्नि दे लेकिन मैं ₹1 नहीं दूंगा” बेटा ना चाहते हुए भी चिता को अग्नि देने लगा. अब चिता आग पकड़ने ही वाली थी और तभी अग्नि का रूपांतर फूलों में हो गया. वह सन्यासी चिता के पास साक्षात विष्णु रूप में प्रकट हुए और व्यापारी को चिता से उठा लिया, और कहा संकल्प करना है तो ऐसा करना चाहिये..
लेकिन मैंने यथाशक्ति संकल्प किया था. इसका मतलब कहीं ना कहीं मेरा विश्वास मेरे मैया के ऊपर पूरी तरह से नहीं जम पाया था. मैया दयालु तो है. मुझे तकलीफ ना हो इसके लिए शायद उसने मुझे यथाशक्ति संकल्प लेने के बारे में सुझाया था. लेकिन मेरी उन पर श्रद्धा होनी चाहिए थी. मैंने भी कुछ नियम रखकर संकल्प लेना चाहिए था. अगर मैं वैसा करती तो शायद वह संकल्प मैया जी पूरा करती ही करती. फिर से अगर मुझे परिक्रमा का मौका मिले तो मैं कुछ नियमों के साथ ही संकल्प करूंगी.
परिक्रमा के नियम क्या होते हैं मुझे शायद अभी तक नहीं समझा है. लेकिन शत-प्रतिशत श्रद्धा यह एक ही नियम परिक्रमा वासियों के लिए होना चाहिए ऐसे मुझे लगता है. मुझसे भी कई बार कुछ गलतियां हुई है और कई बार मां नर्मदा ने मुझे अभय का वरदान भी दिया है. वह मेरे अगले अनुभवों में आपको पढ़ने मिलेगा ही.
संकल्प ले लिया गया. कार्तिक द्वादशी 1 नवंबर 2017 का दिन. मैं इस अनुभव कथन में मेरी रोजनिशी नहीं बताने वाली हूं क्योंकि अपने-अपने प्रकृति और प्रारब्ध के अनुसार परिक्रमा होती है. मुझे जो भी अनुभव मिले मैं बस अनुभव आपको बताने वाले हूं क्योंकि वह अनुभव मिलना यह मेरे लिए बहुत ही महत्वपूर्ण था. तो परिक्रमा की शुरुआत 1 नवंबर से करते हैं और इसमें आए हुए अनुभव अगले खंड से आपको बताना शुरू करूंगी. नर्मदे हर...